गिरिराज  (28 मई – 3 जून, 2025) संपादकीय 

पर्यावरण संरक्षण हमारी नैतिक जिम्मेदारी

पर्यावरण का मुद्दा केवल विज्ञान या अर्थशास्त्र का मुद्दा नहीं है; यह एक गहरा नैतिक और मानवीय मुद्दा भी है। यह हमारे अस्तित्व का प्रश्न है। हमारा कल्याण प्रकृति के कल्याण से जुड़ा हुआ है। यदि प्रकृति स्वस्थ है, तो हम स्वस्थ है। यदि प्रकृति बीमार है, तो हम बीमार है। प्राचीन भारतीय दर्शन में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का सिद्धांत इसी बात पर जोर देता है कि पूरी पृथ्वी एक परिवार है, और हम उसके सदस्य हैं। रूप से उठ खड़ा होता है कि हम इस दरार को कैसे भरें और कैसे उस सद्‌भाव को पुनः स्थापित करें जो हमारे जीवन की नींव है। यह केवल एक पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संकट भी है। पृथ्वी, एक जीवित, सांस लेती हुई इकाई है। उसके पहाड़ उसकी रीढ़ हैं, नदियां उसकी नसें, और वन उसके फेफड़े हैं। हर जीव, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, इस विशाल तंत्र का एक अभिन्न अंग है।

औद्योगिक क्रांति के बाद से मनुष्य के विकास की अंधी दौड़ ने प्रकृति पर गहरा आघात किया है। कारखानों से निकलता धुआं जो आकाश को काला कर रहा है, नदियों में बहता रासायनिक कचरा जो जलीय जीवन को नष्ट कर रहा है, और वनों का अंधा-धुंध कटान जो अनगिनत प्रजातियों के आवास छीन रहा है- ये सब उस अमानवीय कृत्य के साक्षी हैं जो हम अपनी ही मां के साथ कर रहे हैं। हमने शहरों का विस्तार किया, कंक्रीट के जंगल बनाए, और आधुनिकता के नाम पर प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और तटीय इलाकों में बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन एक भयावह वास्तविकता बन चुका है, जिसके कारण बेमौसम बरसात, अत्याधिक गर्मी की लहरें, और अनपेक्षित तूफान अब सामान्य घटनाएं बन गए हैं। इन सबके परिणामस्वरूप कृषि पर बुरा असर पड़ रहा है, खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ रही है, और प्रवासन की समस्या भी बढ़ रही है। ये सब प्रकृति के चेतावनी संकेत हैं, जो हमें बता रहे हैं कि अब बहुत हो चुका है और प्रकृति अपनी सीमा तक पहुंच चुकी है।

पर्यावरण संरक्षण केवल एक विकल्प नहीं है, बल्कि एक अनिवार्यता है। यह हमारे अस्तित्व की शर्त है। हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव लाना होगा, अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा और अपनी प्राथमिकताओं को पुनः निर्धारित करना होगा। इस परिवार के किसी भी सदस्य को नुकसान पहुंचाना स्वयं को नुकसान पहुंचाना है।

साहित्य, समाज का दर्पण होता है। यह समाज की पीड़ा, उसके संघर्षों, और उसकी आशाओं को प्रतिबिंबित करता है। पर्यावरण के इस संकट में साहित्य की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। लेखक, कवि, और विचारक अपनी कलम की शक्ति से लोगों को जागरूक कर सकते हैं, उन्हें प्रकृति के प्रति संवेदनशील बना सकते हैं, और उन्हें बदलाव के लिए प्रेरित कर सकते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर ने प्रकृति को आत्मा का विस्तार माना था, उनकी ‘वनवानी’ कविताएं इसका सुंदर उदाहरण हैं। हमें अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना होगा। हमें ‘उपभोक्ता’ से ‘संरक्षक’ बनना होगा। यह कोई आसान काम नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है। हमें छोटे-छोटे कदमों से शुरुआत करनी होगी, क्योंकि हर बड़ा बदलाव छोटे कदमों से ही शुरू होता है। बिजली बचाना-जब हम कमरे से बाहर निकलें तो अनावश्यक लाइटें और पंखे बंद करें। पानी का सदुपयोग करना-बश करते समय या नहाते समय नल खुला न छोड़ें, वर्षा जल संचयन करें। प्लास्टिक का कम से कम उपयोग करना सिंगल-यूज प्लास्टिक से बचें, कपड़े के थैलों का उपयोग करें। पेड़ लगाना-अपने आसपास के वातावरण को हरा-भरा बनाएं, सामुदायिक वानिकी में भाग लें। स्थानीय उत्पादों का समर्थन करना इससे परिवहन के कारण होने वाले प्रदूषण में कमी आएगी और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। ये सब ऐसे कदम हैं जो हम व्यक्तिगत स्तर पर उठा सकते हैं। जब लाखों लोग ऐसे छोटे-छोटे कदम उठाएंगे, तो उनका सामूहिक प्रभाव विशाल होगा और एक हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त करेगा।

शिक्षा की भूमिका भी इसमें बहुत महत्त्वपूर्ण है। बच्चों को बचपन से ही पर्यावरण के प्रति जागरूक करना होगा। उन्हें प्रकृति से प्रेम करना सिखाना होगा, उसे समझना और उसकी रक्षा करना सिखाना होगा। उद्योगों को भी पर्यावरणीय मानकों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए और जो इसका उल्लंघन करते हैं, उन पर कठोर दंड लगाया जाना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सहयोग और समन्वय की आवश्यकता है, ताकि जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों का सामना किया जा सके, क्योंकि प्रदूषण की कोई सीमा नहीं होती। पेरिस समझौता जैसे अंतर्राष्ट्रीय प्रयास महत्त्वपूर्ण है, लेकिन उनके कार्यान्वयन को और अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है। विकसित देशों को विकासशील देशों को पर्यावरणीय तकनीकों और वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए ताकि वे भी सतत विकास के पथ पर आगे बढ़ सकें।

यह केवल पर्यावरणविदों या वैज्ञानिकों का काम नहीं है; यह हम सबका काम है। हर व्यक्ति, हर समुदाय, हर राष्ट्र को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। हमें अपनी तात्कालिक जरूरतों से ऊपर उठकर भविष्य के बारे में सोचना होगा। हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़कर जानी होगी, एक ऐसी दुनिया जहां वे स्वच्छ हवा में सांस ले सकें, शुद्ध पानी पी सकें, और प्रकृति के सौंदर्य का आनंद ले सकें। हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि हम प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को कैसे सुधारें। हमें यह समझना होगा कि पृथ्वी हमारा घर है और हमें इसकी देखभाल करनी होगी। यदि हम इसे प्रदूषित करते हैं तो अंततः हम खुद को ही नुकसान पहुंचाते हैं। पर्यावरण संरक्षण केवल एक विकल्प नहीं है, बल्कि एक अनिवार्यता है। यह हमारे अस्तित्व की शर्त है। हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव लाना होगा, अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा और अपनी प्राथमिकताओं को पुनः निर्धारित करना होगा। हमें प्रकृति को केवल एक संसाधन के रूप में नहीं, बल्कि एक सहजीवी के रूप में देखना होगा, यह समय एक नई शुरुआत करने का है। एक ऐसी शुरुआत जो हमें प्रकृति के करीब लाए, हमें उसके साथ सद्‌भाव में जीना सिखाए, और हमें एक स्वस्थ और टिकाऊ भविष्य की ओर ले जाए। यह एक लंबी यात्रा है, लेकिन यदि हम सब मिलकर चलेंगे, तो हम निश्चित रूप से अपनी पृथ्वी को बचा पाएंगे, और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुंदर और सुरक्षित घर छोड़कर जा पाएंगे। 

संपादकीय की व्याख्या

यह संपादकीय “पर्यावरण संरक्षण हमारी नैतिक जिम्मेदारी” इस मूल विचार पर आधारित है कि पर्यावरण की सुरक्षा केवल एक वैज्ञानिक या आर्थिक चिंता नहीं, बल्कि मानवता का एक नैतिक और आध्यात्मिक कर्तव्य है।

  • मुख्य तर्क: लेखक का मुख्य तर्क यह है कि मनुष्य का कल्याण प्रकृति के स्वास्थ्य से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। जब हम प्रकृति को नुकसान पहुँचाते हैं, तो हम अंततः खुद को ही नुकसान पहुँचाते हैं। यह लेख हमें ‘उपभोक्ता’ की मानसिकता से निकलकर ‘संरक्षक’ की भूमिका अपनाने का आग्रह करता है।
  • प्रमुख विषय:
    • नैतिक संकट: संपादकीय पर्यावरण संकट को एक नैतिक और सांस्कृतिक संकट के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें प्राचीन भारतीय दर्शन ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ (पूरी पृथ्वी एक परिवार है) का हवाला दिया गया है।
    • आधुनिक विकास की आलोचना: इसमें औद्योगिक क्रांति के बाद हुए अंधाधुंध विकास की आलोचना की गई है, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियरों का पिघलना और प्रदूषण जैसी भयावह समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
    • व्यक्तिगत जिम्मेदारी पर जोर: यह हर व्यक्ति को अपनी जीवनशैली में छोटे-छोटे बदलाव लाने के लिए प्रेरित करता है, जैसे – बिजली-पानी बचाना, प्लास्टिक का उपयोग कम करना, पेड़ लगाना और स्थानीय उत्पादों को अपनाना। लेखक का मानना है कि ऐसे लाखों छोटे कदमों का सामूहिक प्रभाव एक बड़ी ‘हरित क्रांति’ ला सकता है।
    • सामूहिक प्रयास का आह्वान: लेख में शिक्षा की भूमिका पर बल दिया गया है ताकि बच्चों में बचपन से ही प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना विकसित हो। साथ ही, यह उद्योगों के लिए कड़े नियम, और जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालता है।
  • निष्कर्ष: संपादकीय का सार यह है कि हमें प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को फिर से परिभाषित करना होगा। हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित दुनिया छोड़ने की अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा, और यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति, हर समुदाय और हर राष्ट्र मिलकर प्रयास करे।

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