7 May to 13 May 2025 Giriraj Editorial with detailed description
1. कार्य-संस्कृति में समय की कीमत समझें
समय बहुत बहुमूल्य है। इसका सम्मान रखना हम सभी का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए। इसकी शक्ति का अहसास करना आवश्यक है। समय अपने साथ अजूठे अवसर लेकर आता है। यदि एक क्षण भी व्यर्थ चला गया तो वह अमूल्य अवसर सदैव के लिए चला जाता है। जो लोग समय के मूल्य और महत्त्व को समझ लेते हैं, वे निश्चय ही अपने कार्यक्षेत्र एवं जीवन में उत्थान कर लेते है। इसी तरह जो राष्ट्र के महत्त्व को समझ लेते हैं, वह मनुष्य सही मायने में स्वयं के विकास की बुलदियो को छू लेते हैं। आज दुर्भाग्य से हमारे देश की सरकारी कार्य-संस्कृति बहुत बदनाम हो चुकी है। सरकारी कार्यालयों और वहां पर बैठे कर्मचारियों की कार्यशैली को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे उन्हें समय की महत्ता का पूर्ण परिचय हो। सभी समझते हैं कि यदि कार्य सरकारी है, तो यह कब पूरा होगा, यह सही नहीं कहा जा सकता। समय का अवमूल्यन और जिम्मेदारी के प्रति इतनी घोर लापरवाही के कारण ही अपना भारत गतिशील नहीं दिखाई देता है। ‘डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग’ की ओर से जारी एक निर्देश में कहा गया है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए कार्य स्थल पर आदत के अनुसार देर से पहुंचना एक दंडनीय अपराध है और ऐसे कर्मचारियों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई की जा सकती है सामान्य रूप से एक कर्मचारी के लिए एक हफ्ते में आवश्यक कार्य का जिम्मेदारी और समर्पण के साथ निर्वाह करना और देश के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करना, अधिकारी लोग आवश्यक समझे ? किए जाने पर पुरस्कार की व्यवस्था भी रहती है और ठीक इसके विपरीत कार्य करने पर दंड की व्यवस्था भी रहती है। अतएव यहां समय की महत्ता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। प्रतिदिन आठ घंटे की दर से चालीस घंटे प्रति सप्ताह उपस्थिति अनिवार्य है। यहां सवाल मात्र उपस्थिति का नहीं, अपितु उपस्थित समय में पूर्ण जिम्मेदारी के साथ किए गए कार्य का है। प्रायः कर्मचारी चालीस घंटों के लिए उपस्थित तो रहते हैं, परंतु इस अवधि में लंबित कार्यों को पूर्ण करने की अपेक्षा अनावश्यक मुद्दों पर समय गंवाते रहते हैं। आज इसी बात का दुष्परिणाम है कि समय के महत्त्व को समझने की नितांत आवश्यकता है। ठीक इसके विपरीत निजी कार्यकारी क्षेत्र में यह सब विडंबनाएं देखने को नहीं मिलती हैं। समय सीमा के साथ काम का पूरा होना, कार्य करने की इस परंपरा ने यह दिखा दिया है कि समय का मूल्य समझकर वर्तमान की तुलना में बेहतर कार्य किया जा सकता है। इसका मुख्य भाव यह है कि समय की बरबादी करने वाले सरकारी तंत्र कार्यालयों के बाहर परेशान जो देश समय का महत्त्व समझता है वह विकास के नागरिकों की वृहत लंबी लाइनें सोपानों पर बढ़ता जाता है और जो इसके विपरीत समय देखने को मिलती हैं, जबकि सोपानों पर बढ़ता जाता है और जो इसके विपरीत समय में भी इसे लागू किया जा सकता है। मोदी सरकार ने सरकारी कर्मचारियों को समय का महत्त्व बताने के लिए उनकी समस्या का निस्तारण की बर्बादी करता है, वो कीमती अवसरों को खो देता है। अनेक प्रकार के प्रयोग किए, जिसका करने के लिए वहां कोई उपस्थित ही नहीं रहता है। आज भारत में कार्य संस्कृति का इतना घोर अवमूल्यन हो रहा है, जिसे देखकर देश के भविष्य के प्रति चिंता करना स्वाभाविक है। समय का मूल्य समझना प्रत्येक नागरिक का नैसर्गिक गुण होना चाहिए और यदि एक निर्देश के रूप में, शक्ति के बल पर, बलपूर्वक करवाना पड़े तो इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है? जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाना एक बेतुका कार्य लगता है। आखिर हमारे देश में ऐसी कार्य संस्कृति क्यों नहीं बन पा रही है, जिसमें समय पर कार्यालय आना, इसकी विशेषता है। इसके कर्मचारी समय की महत्ता को समझते हैं। यहां उचित समय पर काम होता है, काम का पर्याप्त मूल्य चुकाया जाता है। यदि किसी कर्मचारी को एक घंटे की भी देरी हो जाती है तो उसके वेतन से कटौती डॉ. विजयप्रकाश त्रिपाठी कर ली जाती है और यदि कर्मचारी ने एक घंटे अधिक कार्य किया है तो उस समय का वेतन बढ़ाकर दिया जाता है। इसके साथ ही समय का उचित निर्वहन करके दक्षतापूर्ण कार्य संपन्न परंतु असर कुछ दिनों तक तो देखा गया, कुछ समय के उपरांत फिर वही पुरानी स्थिति लौटकर आ गई। इससे भी बड़ी कठिनाई तब आती है जब कोई सरकार इन सरकारी कर्मचारियों पर कोर कार्यवाही करने का प्रयास करती है तो आगामी चुनाव में हारने की प्रबल संभावना भी रहती है। अतएव कोई भी सरकार उन पर सीधे कार्यवाही करने से बचती है। अतः इसे आपसी समझदारी के साथ करना होगा। राष्ट्र और समाज के प्रति अपनी जवाबदेही, जवाबदारी व जिम्मेदारी की संवेदनशीलता को गहराई से समझने की आवश्यकता है। समय के मूल्य को समझते हुए कार्य करने वाले अनेक छोटे-छोटे देश सीमित एवं अल्प संसाधनों के बावजूद संपूर्ण विश्व में अपना प्रभाव छोड़ने में समर्थ रहे हैं। इन देशों ने समय के महत्त्व को अपनी कार्य संस्कृति में सम्मिलित किया है और तभी प्रगति पथ पर अग्रसर है। जापान एक ऐसा देश है जहां लोग समय के बड़े ही पाबंद हैं। जापानी कर्मचारी कार्यालय देर से पहुंचने को अपराध मानते हैं और समय पर काम के पूरा न होने को गुनाह रूप में कबूलते हैं। वे निश्चित अवधि से भी अधिक समय तक सहजता से कर्म करने के लिए जाने जाते हैं। जापान में जो बुलेट ट्रेन चलती है, उसके इतिहास में सर्वाधिक विलंब 48 सेकेंड का हुआ है, अन्यया समय पर ही उनके देश में सारा कार्य संपन्न किया जाता है। समय ही है, जो हमें विकास करने के अवसर देता है और इस अवसर के लाभ को प्राप्त करने के लिए समय के महत्त्व को समझने की नितांत आवश्यकता है। जो देश समय का महत्त्व समझता है वह विकास के सोपानों पर बढ़ता जाता है और जो इसके विपरीत समय की बर्बादी करता है, वो कीमती अवसरों को खो देता है। क्योंकि समय गुजर जाने के बाद फिर उसका कोई मूल्य नहीं रहता। आज हमें समय के मूल्य की गहराई से समझने की आवश्यकता है। जब इस तथ्य को हमारे देशवासी समझ लेंगे तो अपने देश का परिदृश्य कुछ और होगा।
विस्तृत विवरण ( यह लेख सरकारी और निजी क्षेत्रों में कार्य संस्कृति में समय के महत्व पर प्रकाश डालता है. लेखक का तर्क है कि समय अमूल्य है और इसका सम्मान करना हर किसी का नैतिक कर्तव्य है. जो लोग समय के मूल्य को समझते हैं, वे अपने कार्यक्षेत्र और जीवन में उत्थान करते हैं.
लेख सरकारी कार्य-संस्कृति की आलोचना करता है जहां अक्सर कार्यों को पूरा करने में देरी होती है. यह बताता है कि सरकारी कर्मचारियों के लिए कार्यस्थल पर देर से पहुंचना दंडनीय अपराध है और इसके विरुद्ध विभागीय कार्रवाई का प्रावधान है. इसके विपरीत, निजी कार्यकारी क्षेत्र में काम समय सीमा के साथ पूरा होता है और दक्षता को महत्व दिया जाता है.
जापान का उदाहरण दिया गया है जहां लोग समय के बड़े पाबंद हैं और यह उनकी कार्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. जापानी कर्मचारी कार्यालय देर से पहुंचने को अपराध मानते हैं और समय पर काम पूरा न होने को गुनाह के रूप में स्वीकार करते हैं. बुलेट ट्रेन के संचालन का उदाहरण दिया गया है जहां सर्वाधिक विलंब केवल 48 सेकंड का हुआ है.
लेखक का मानना है कि समय का मूल्य समझना प्रत्येक नागरिक का नैसर्गिक गुण होना चाहिए. मोदी सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारियों को समय का महत्व समझाने के प्रयास किए गए, लेकिन उनका असर कुछ ही दिनों तक देखा गया. अंततः, राष्ट्र और समाज के प्रति अपनी जवाबदेही को समझने की आवश्यकता है. लेख का निष्कर्ष है कि जो देश समय का महत्व समझता है वह विकास के सोपानों पर बढ़ता जाता है.)
2. शिक्षा सबसे कीमती उपहार
शिक्षा मनुष्य के जीवन का सबसे कीमती उपहार है जो व्यक्ति के जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल देती है। ‘शिक्षा’ शब्द संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है जिसका अर्थ है- सीखना और सिखाना। शब्द का अर्थ है- शुद्धिकरण अथवा सुधार। शिक्षा और संस्कार दोनों जीवन के मूल मंत्र हैं परंतु संस्कार जीवन का सार हैं। अच्छे संस्कारों द्वारा ही मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है और जब मनुष्य में शिक्षा और संस्कार दोनों का विकास होगा तभी वह परिवार, समाज और देश का विकास कर सकेगा। शिक्षा कभी झुकने नहीं देती और संस्कार कभी नजरों से गिरने नहीं देते। यदि अच्छी शिक्षा और संस्कार एवं अच्छी संगति मिल जाए तो जीवन निखर जाता है ठीक इसके विपरीत यदि एक की भी कमी रह जाए तो जीवन बिखर जाता है। यदि बच्चे को उपहार न दिया जाए तो वह केवल थोड़ी देर रोता है लेकिन यदि संस्कार न दिए जाएं तो वह जीवन भर रोएगा। आज शिक्षा केन्द्र सुलभ हो गए है परन्तु संस्कार दुर्लभ हैं, शिक्षा सस्ती हो गई है आप कहीं से भी, घर बैठे भी ग्रहण कर सकते हैं परन्तु संस्कार यदि घर और विद्यालय से नहीं मिले तो कहीं भी न मिल विश्व पाएंगे। -बाप की आज्ञा का पालन न करना, अभद्र व्यवहार तया अहंकार परिस्थिति बन गए हैं। यदि हम सोचते हैं कि बड़े-बड़े महंगे स्कूलों में डालकर हम अपने बच्चा हम अपने बच्चों को संस्कारी और शिक्षित बना रहे हैं। तो हम गलत है। शिक्षा और संस्कार दोनों ही आवश्यक हैं। माता-पिता भले ही अनपढ़ क्यों न हों लेकिन अपने बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने की जो क्षमता उनमें है वह दुनिया के किसी भी स्कूल में नहीं है। शिक्षा हमें धन-दौलत और प्रसिद्धि दिलाती है परंतु उस धन-दौलत और प्रसिद्धि को चार चांद लगा देते हैं- संस्कार। किसी ने कहा भी है कि जिस स्थान पर पेड़-पौधे और पानी होता है वहां हरियाली अपने आप आ जाती है उसी तरह जहां अच्छी शिक्षा और संस्कार होते हैं वहां सफलता आपके कदम चूमती है। आज माता-पिता और शिक्षकों के लिए यह महत्ती आवश्यक है कि वे बच्चो में सच्चाई, ईमानदारी, सेवा और सहायता जैसे गुणों को विकसित करें। एक सफल डॉक्टर, इंजीनियर था शिक्षक से कई गुणा अच्छा एक अनपढ़ व्यक्ति है जो किसी बुजुर्ग को अपनी सीट दे देता है, किसी असहाय की सहायता करता है। मनुष्य अपने जीवन में जो डिग्री हासिल करता है वह कागज का टुकड़ा मात्र होता है जबकि उसकी असली डिग्री उसके संस्कार होते हैं जो व्यवहार में झलकते हैं। आज का विद्यार्थी भौतिकवादी प्रवृत्ति का बन चुका है। वह पढ़ाई केवल इसलिए करता है ताकि आने वाले समय में अपने जीवन में कुछ पैसे कमा सके। संस्कार उसको बाजारी शिक्षा से नहीं बल्कि घर से मिलेंगे। बच्चों को संस्कारी बनाने के लिए पहले मां-बाप को संस्कारवान बनना आवश्यक है। यदि मां-वाप झूठ बोलते हैं, झगड़ा करते हैं, गाली-गलौच करते हैं तो बहुत संभावना है कि बच्चे भी ऐसा करेंगे। इसलिए हमें भी अपने बच्चों के सामने आदर्श बनना होगा। वर्तमान में माता-पिता अपने बच्चे को उसी कोचिंग सेंटर में दाखिला दिलवाते हैं जिसकी फीस सबसे अधिक होती है। उनके अनुसार विद्या के सबसे अच्छे मंदिर वही है उन्हें मालूम नहीं है कि कोचिंग सेंटर से निकला बच्चा मोटी तनख्वाह तो हासिल कर लेगा लेकिन वह संस्कार कहां से पाएगा जो घर में बुजुर्गों, दादा-दादी, चाचा-चाची तया आस-पड़ोस से मिलने थे। किसी शायर के शब्दों में कि जिस देश में बारिश न हो उसकी फसलें खराब हो जाती हैं और जिस देश में संस्कार न हों वहां की नस्लें खराब हो जाती हैं।’ किरण कुमारी
विस्तृत विवरण (यह लेख शिक्षा और संस्कारों के महत्व पर केंद्रित है, जिन्हें मनुष्य के जीवन के दो महत्वपूर्ण स्तंभ बताया गया है. शिक्षा को जीवन का सबसे कीमती उपहार माना गया है जो व्यक्ति के जीवन की दशा और दिशा बदल देती है. हालाँकि, लेख इस बात पर जोर देता है कि केवल शिक्षा पर्याप्त नहीं है; अच्छे संस्कार जीवन का सार हैं और मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं.
लेख में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई है कि आजकल शिक्षा केंद्र आसानी से उपलब्ध हैं, लेकिन अच्छे संस्कार दुर्लभ होते जा रहे हैं. यह तर्क दिया गया है कि महंगे स्कूलों में दाखिला दिलाकर ही बच्चों को संस्कारी नहीं बनाया जा सकता. माता-पिता की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया गया है क्योंकि वे बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
लेख का कहना है कि शिक्षा धन, दौलत और प्रसिद्धि दिलाती है, लेकिन उस धन, दौलत और प्रसिद्धि को संस्कार चार चांद लगा देते हैं. यदि बच्चे को उपहार न दिया जाए तो वह थोड़ी देर रोता है, लेकिन यदि संस्कार न दिए जाएं तो वह जीवन भर रोएगा.
लेखक आज के विद्यार्थियों की भौतिकवादी प्रवृत्ति पर भी टिप्पणी करता है जो केवल पैसे कमाने के उद्देश्य से पढ़ाई करते हैं. संस्कारों को किताबी शिक्षा से नहीं, बल्कि घर और आस-पड़ोस से प्राप्त होने वाली चीजों के रूप में परिभाषित किया गया है. माता-पिता को बच्चों के सामने एक आदर्श बनने की आवश्यकता है ताकि बच्चे अच्छे संस्कार सीख सकें. अंत में, लेख का निष्कर्ष है कि जिस देश में बारिश न हो उसकी फसलें खराब हो जाती हैं और जिस देश में संस्कार न हों वहां की नस्लें खराब हो जाती हैं.)
3. पृथ्वी मात्र संसाधन न होकर जीवन की सहगामी है।
प्रकृति केवल दृश्य भर नहीं है। वह अनुभूति है, संवेदना है और आत्मा के उस मौन संगीत का विस्तार है जिसे हमारे पूर्वजों ने ‘ऋत’ और ‘धर्म’ के रूप में आत्मसात किया। भारतीय जीवन-दर्शन की धमनियों में जो प्रवाह है, वह सृष्टि से संवाद की परंपरा का प्रवाह है, जहां वृक्ष केवल लकड़ी नहीं, वटवृक्ष कहलाते हैं। जहां गंगा नदी नहीं, मां होती है और जहां धरती केवल -खंड नहीं, पृथ्वी ‘माता’ कहलाती है। यह वह धरती है, जहां पशु-पक्षी, पर्वत-नदी, सूरज-चांद सभी पंचदेवों की तरह पूजनीय रहे हैं, जहां जीवन और जगत के मध्य की रेखा लुप्त होकर एक आत्मीय रिश्ते में बदल जाती है। पर आज जब विकास का चाबुक धरती की पीठ पर पड़ रहा है। भारतीय जीवन-दर्शन का मूल तत्त्व है- समरसता, सह-अस्तित्व और संवेदना। यह दर्शन केवल आत्मा और परमात्मा की गूढ़ मीमांसा नहीं है, बल्कि यह धरती, जल, वायु, अग्नि, आकाश और सम्पूर्ण जैविक जड़ जगत के साथ एक गहन तादात्म्य की घोषणा करता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की प्रार्थना केवल मानव समाज तक सीमित नहीं, अपितु समय सृष्टि के कल्याण की आकांक्षा में रची-बसी है। जब हम कहते हैं ‘प्रकृति ही परमात्मा है’, तो हम किसी अज्ञेय तत्त्व की नहीं, उस जीवंत, धड़कती, हरी-भरी चेतना की बात करते हैं, जो जीवन का आधार है, जो बिना किसी आग्रह के हमारा पोषण करती है, पर जब उसका अतिक्रमण होता है, तो वह चुप नहीं रहती। भारतीय ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही इस सृष्टि के प्रत्येक तत्त्व को पूजनीय माना। गंगा केवल नदी नहीं, मां है। वटवृक्ष आश्रय है, पीपल जीवनदायी श्वास का वाहक है, तुलसी और नीम औषधि हैं, और गोवर्धन पर्वत भी पूज्य है। यह पूजा कोई अंधविश्वास नहीं, बल्कि एक भावात्मक अनुबंध था, जो मनुष्य और प्रकृति के मध्य एक गहरी आत्मीयता को स्थापित करता जप राच पूजा गुप्ता आज लड़कियां लड़कों से पीछे नहीं है, अब हमारी संस्कृति में भी वो जमाना पीछे जा चुका है जहां लड़कियों को घर पर ही सीमित करके रखा जाता था। लेकिन अब समय बदल रहा है, डॉक्टर, इंजीनियर हो या पायलट हर जगह पर बेटियों ने अपना जलवा दिखाया है। लेकिन एक बेटी को अपने मुकाम तक पहुंचने के लिए सबसे पहले अपने माता-पिता का सहारा जरूरी होता है। जब उसके माता-पिता उसे आगे बढ़ना और अपने हक के लिए लड़ना सिखाते हैं, तब वे आगे कुछ कर गुजरने की सोच रखना शुरू करती हैं। अगर आप भी चाहते हैं कि आपकी लाडली जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चले और फ्यूचर में उसे अपनी इच्छाएं पूरी करने के लिए किसी की तरफ देखना न पड़े तो उसे बचपन से ही कुछ खास बातें सिखाना बहुत जरूरी है। एक जमाना था जब मां-बाप बेटियों को कई तरह की बंदिशें लगाते थे, लेकिन आज के समय में लड़कियां लड़कों से कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में चल रही है या यूं हमारी मात्र न होकर था। आज जब धरती कराह रही है, जब मत समझिए। यह हमारे दृष्टिकोण को जलवायु परिवर्तन की आंधियां केवल बदलने की पुकार है। जब तक हम हिमखंडों को नहीं, मनुष्य मनुष्यता की नींव विकास की भाषा में ‘प्राकृतिक को भी हिला रही हैं, तब यह जरूरी हो संसाधन’ जैसे शब्दों का उपयोग करते गया है कि हम अपने प्राचीन रहेंगे, हम प्रकृति के साथ व्यापारी संबंध बनाए रखेंगे। जीवन-दर्शन की ओर लौटें। धरती मां की पुकार अब ध्वनि नहीं रही, वह आर्तनाद है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जंगल कट रहे हैं, नदियां सूख रही है, और वायुमंडल विषाक्त हो रहा है। यह सब केवल आंकड़ों की भाषा में देखें। यह संवेदना की कमी का दुष्परिणाम है। जब हम प्रकृति को ‘उपभोग’ की वस्तु मान लेते हैं, जब न हम विकास को विनाश की सीमा तक जाते हैं, तब धरती प्रतिकार करती है कभी बाढ़ बनकर, कभी सूखा बनकर, ले भारत में पुनर्जागरण की जरूरत है जीवन-दर्शन आधारित पर्यावरण पुनर्जागरण की। हमें अपने मंदिरों में केवल दीप नहीं जलाने, बल्कि वृक्ष भी लगाने होंगे। हमें शिक्षा में विज्ञान के साथ जीवन मूल्यों को भी जोड़ना होगा। पर्यावरण की रक्षा केवल सरकारी योजनाओं, विधिक प्रावधानों या अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों की घोषणाओं से नहीं सुनिश्चित हो सकती। ये सभी प्रयास तभी फलदायी होंगे जब व्यक्ति हमें सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की गणना के साथ-साथ सकल प्राकृतिक समृद्धि (Gross Ecological Wealth) को भी मापना होगा, यह देखना होगा कि हमारे गांवों में कितने जलस्रोत बचे हैं, हमारे खेतों में कितनी देसी प्रजातियां जीवित हैं, हमारे बच्चों ने पक्षियों की चहचहाहट आखिरी बार कब सुनी थी। कभी महामारी बनकर। आज की आधुनिकता हमें सिखाती है कि ‘प्रगति’ का अर्थ है अधिक निर्माण, अधिक उपभोग, अधिक तकनीक। पर भारतीय दृष्टि कहती है ‘प्रगति’ का अर्थ है अधिक संयम अधिक सह-अस्तित्व, अधिक करुणा। हम ‘हरियाली का धर्म’ की बात हैं, तो यह केवल वृक्षारोपण का जब करते आह्वान नहीं होता, यह भीतर की , की चेतना में प्रकृति के प्रति श्रद्धा पुनः जागत हो, जब वह स्वयं को इस सृष्टि का उपभोक्ता नहीं, उत्तरदायी संरक्षक माने। आज जब धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी हो रही है, वनों की हरियाली कंक्रीट की भट्टियों में गल रही है, और नदियां अपने उद्गम को भी पहचानने में असमर्थ हो नृपेन्द्र अभिषेक नृप हरियाली, भीतर के संतुलन का भी आह्वान है। भारतीय जीवन-दर्शन सिखाता है कि जीवन में कोई द्वैत नहीं भीतर-बाहर, मन-प्रकृ ति, आत्मा-जगत सब एक ही हैं। यही अद्वैत भाव ही सच्चा पर्यावरणीय संतुलन ला सकता है। ‘पृथ्वी कोई संसाधन नहीं, जीवन की सहगामी है।’ इस वाक्य को केवल नारों में सीमित बेटियों को गई सहगामी संरक्षण की वास्तविक शुरुआत तब होगी जब हमारी संस्कृति और परंपराएं पुनः प्रकृति-सम्मत बनेंगी। भारतीय संस्कृति में ‘यज्ञ’ केवल अग्नि में आहुति देने का कर्म नहीं है। यह त्याग और संतुलन का प्रतीक है। एक ऐसा दार्शनिक विचार जो कहता है कि सृष्टि तभी संतुलित रहती है जब हम जितना लें, उससे अधिक लौटाएं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमने उस संतुलन को कहीं खो दिया है, जिसे हमारे पूर्वज सहज जीवनशैली में साधा करते थे। वे विकास को केवल निर्माण की गति नहीं, जीवन की गहराई में मापते थे। आज हमें विकास की उस अवधारणा को पुनः परिभाषित करना होगा। हमें सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की गणना के साथ-साथ सकल प्राकृतिक समृद्धि (Gross Ecological Wealth) को भी मापना होगा, यह देखना होगा कि हमारे गांवों में कितने जलस्रोत बचे हैं, हमारे खेतों में कितनी देसी प्रजातियां जीवित है, हमारे बच्चों ने पक्षियों की चहचहाहट आखिरी बार कब सुनी । धरती मां की पुकार केवल प्रकृति की चीख नहीं है, वह हमारी आत्मा के द्वार पर दस्तक है। यह पुकार है कि हम अपने स्वार्य की सीमाओं से बाहर निकलें और इस धरती के साथ एक बार फिर जुड़ें, भावनात्मक रूप से, आध्यात्मिक रूप से। हम अपनी सोच को फिर से उस दिशा में मोड़ें जहां आध्यात्मिकता का मापदंड मंदिरों की संख्या नहीं, वनों की हैं। तब यह प्रश्न हरियाली हो, जहां आस्था का विस्तार मूर्तियों से आगे जाकर जीवन के प्रत्येक रूप में परमात्मा को देखने की और अधिक तीव्र हो उठता है कि क्या पर्यावरण संकट केवल एक भौतिक समस्या है? नहीं, यह मूलतः चेतना का संकट है। यह उस दृष्टिकोण का संकट है जिसमें प्रकृति को केवल संसाधन माना गया, उपभोग की वस्तु समझा गया, जबकि हमारी सांस्कृतिक परंपरा में वह ‘माता’ कही गई, उपासना की पात्र रही। हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण सिखाएं कहें कि कुछ क्षेत्रों में लड़कियां, लड़कों से भी आगे हैं। हालांकि, अभी भी कुछ जगह ऐसी हैं जहां लड़कियों पर काफी रोक-टोक लगाई जाती है, जो कि गलत है। हर माता-पिता को बचपन से ही अपनी लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए। कहते भी हैं न एक लड़का शिक्षित होकर एक परिवार को शिक्षित करता है, जबकि एक लड़की के शिक्षित होने पर दो परिवार शिक्षित होते हैं। आज के समय में लड़के, लड़कियां हर कदम पर साथ चलने को तैयार हैं। ऐसे में माता-पिता को बचपन से ही लड़कियों को कुछ ऐसी शिक्षा देनी चाहिए, जिससे कि उनकी लड़कियां उज्ज्वल भविष्य की तरफ अपना कदम बढ़ा सकें। बचपन से ही लड़कियों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए, जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़ सके। अक्सर ज्यादातर घरों में लड़कियां पूरे परिवार पर ध्यान देती हैं और वे खुद का ख्याल रखना भूल जाती है। ऐसे में हर माता-पिता को अपनी बेटी को यह सिखाना चाहिए कि वह पहले अपना ख्याल रखें क्योंकि अगर वह खुद स्वस्थ रहेंगी तभी तो वह परिवार का ख्याल रख पाएंगी। कई ऐसे मामले देखने को मिलते हैं, जिनमें दृष्टि दे। जब तक हम विकास को प्रकृ ति के विरुद्ध खड़ा करेंगे, तब तक दोनों ही पराजित होंगे मानव भी और पर्यावरण भी। किंतु जब विकास की दिशा प्रकृति के साथ कदमताल करे, तो एक नया युग जन्म लेता है। एक ऐसा युग, जो तकनीक और तपस्या का संगम हो, जो बुद्धि से नहीं, विवेक से चलता हो। आत्मरक्षा है बेटियों की आवाज दबा दी जाती है। घर के बाहर लड़की से कोई लड़का छेड़खानी करता है तो अक्सर लड़की के मां-बाप उसे चुप करके बात भूल जाने और घर बैठने को कहते हैं। जबकि मां-बाप के लिए ये जरूरी कि वह अपनी लड़की को खुद के लिए लड़ना सिखाएं ताकि वह अपने लिए आवाज उठा सके। मार्शल आर्ट एक ऐसी कला है, जिसमें आप फिट रहने के साथ-साथ अपनी सुरक्षा खुद कर सकती हैं। इस कला के माध्यम से आप छेड़-छाड़ करने वालों को मुंहतोड़ जवाब दे सकती हैं। आत्मसुरक्षा आपको मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनाता है। जबकि यह बात लड़कियों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाती है। ऐसे में जरूरी है कि माता-पिता बचपन से ही लड़कियों को आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दें। आत्मनिर्भर लड़की समाज में अपनी अलग इज्जत और नाम कमा सकेगी। माता-पिता को बचपन से ही लड़कियों को खुद के लिए निर्णय लेने सिखाना चाहिए। अक्सर माता-पिता बचपन से ही लड़कियों को खुद के लिए निर्णय नहीं लेने देते हैं, जिस कारण लड़कियों का आत्मविश्वास कम हो का का मूलमंत्र जाता है और वह अपने निर्णय लेने के लिए झिझकना शुरू कर देती हैं। ऐसे में माता-पिता को लड़कियों को अपने निर्णय खुद लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। लड़कियों को आजादी मतलब समझाएं और बताएं कि वह अपना जीवन अपनी इच्छा अनुसार जी सकती है और वह अपने निर्णय भी खुद ले सकती है। अक्सर हम देखते हैं कि लड़कियां परिवार वालों के दबाव में आकर बिना मन के भी हां बोल देती है, जो कि गलत है। लड़कियों को खुद की बात अपने माता-पिता के सामने खुल कर रखना आना चाहिए। ऐसे में माता-पिता को बचपन से ही लड़कियों को सिखाना चाहिए कि वह कभी दबाव में आकर कोई निर्णय ना लें और जिस बात के लिए उनका मन ना हो वह उस बात के लिए निडर होकर ना बोल सकें। अगर आपका लड़का बाहर घूम रहा है और जहां मर्जी जा रहा है, तो आपकी लड़की को भी बराबर हक होना चाहिए। जब तक लड़की बाहर नहीं निकलेगी उसे ये दुनियां समझ ही नहीं आएगी। इसलिए आप अपनी बेटी को सिखाएं कि वो भी अपने जीवन में पूरी तरह से आजाद है और लड़के की तरह ही घूम-फिर सकती है।
विस्तृत विवरण ( यह लेख भारतीय जीवन-दर्शन और प्रकृति के साथ मनुष्य के गहरे संबंध पर आधारित है. लेखक का तर्क है कि प्रकृति केवल दृश्य नहीं है, बल्कि अनुभूति, संवेदना और आत्मा के संगीत का विस्तार है जिसे हमारे पूर्वजों ने ‘ऋत’ और ‘धर्म’ के रूप में आत्मसात किया. भारतीय जीवन-दर्शन समरसता, सह-अस्तित्व और संवेदना पर आधारित है, जो धरती, जल, वायु, अग्नि, आकाश और सम्पूर्ण जैविक जड़ जगत के साथ गहन तादात्म्य की घोषणा करता है. ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का भाव केवल मानव समाज तक सीमित नहीं है, बल्कि समस्त सृष्टि के कल्याण की आकांक्षा है.
लेख इस बात पर जोर देता है कि प्रकृति को केवल संसाधन नहीं मानना चाहिए, बल्कि ‘माता’ के समान पूजनीय मानना चाहिए, जैसा कि हमारी सांस्कृतिक परंपरा में रहा है. आज जब विकास के नाम पर धरती का अतिक्रमण हो रहा है, तो यह पर्यावरणीय संकट केवल एक भौतिक समस्या नहीं, बल्कि मूलतः चेतना का संकट है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जंगल कट रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं, और वायुमंडल विषाक्त हो रहा है – यह सब संवेदना की कमी का दुष्परिणाम है.
लेख का तर्क है कि हमें अपने प्राचीन जीवन-दर्शन की ओर लौटना चाहिए. पर्यावरण की रक्षा केवल सरकारी योजनाओं या कानूनों से नहीं हो सकती, बल्कि व्यक्ति की चेतना में प्रकृति के प्रति श्रद्धा पुनः जाग्रत होनी चाहिए. लेखक सुझाव देता है कि हमें सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की गणना के साथ-साथ सकल प्राकृतिक समृद्धि (Gross Ecological Wealth) को भी मापना होगा.
लेख में ‘यज्ञ’ को त्याग और संतुलन का प्रतीक बताया गया है, जो सिखाता है कि सृष्टि तभी संतुलित रहती है जब हम जितना लें, उससे अधिक लौटाएं. विकास की दिशा प्रकृति के साथ कदमताल करे, तभी एक नया युग जन्म लेता है – एक ऐसा युग जो तकनीक और तपस्या का संगम हो. अंततः, लेख का निष्कर्ष है कि पृथ्वी कोई संसाधन नहीं, जीवन की सहगामी है और संरक्षण की वास्तविक शुरुआत तब होगी जब हमारी संस्कृति और परंपराएं पुनः प्रकृति-सम्मत बनेंगी.)