संपादकीय 1: ऊर्जा दोहन

मूल संपादकीय

पानी हिमाचल की नदियों में बहता सोना है। राज्य सरकार इस अमूल्य सम्पदा का प्रदेश हित में समुचित दोहन करने के लिए अहम कदम उठा रही है, ताकि प्रदेश की आर्थिकी को सुदृढ़ किया जा सके। हालांकि विश्व में जल संसाधनों के दोहन का लाइसेंस सामान्यतः 35 से 40 वर्षों तक की अवधि के लिए दिया जाता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश की पूर्व में सत्तासीन रही सरकारों ने जल विद्युत परियोजनाएं लगाने के लिए बिना समयावधि के निर्माण करने वाली कम्पनियों को सौंप दिया। ऐसी सभी परियोजनाओं को हिमाचल को वापिस लेने के लिए प्रदेश सरकार कानूनी राय भी ले रही है ताकि वे अपनी शर्तों पर पन बिजली परियोजनाओं के निर्माण कार्य को आगे बढ़ा सके और प्रदेश के हितों को सुरक्षित रखा जाए।

अभी तक प्रदेश में 11,500 मेगावाट नवीकरणीय ऊर्जा का दोहन किया जा चुका है। लेकिन इसका अधिकांश लाभ केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों को हुआ है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने तेलंगाना सरकार के साथ जिला लाहौल-स्पीति में स्थापित होने वाली 400 मेगावाट सेली और 120 मेगावाट क्षमता की म्याइ जल विद्युत परियोजनाओं के लिए समझौता ज्ञापन हस्ताक्षरित किये हैं। प्रदेश के इतिहास में यह पहली बार है कि इस तरह की साझेदारी की पहल की गई है। सरकार का यह कदम प्रदेश की अपार जल विद्युत क्षमताओं के दोहन में मील पत्थर साबित होगा। यह दोनों परियोजनाएं चिनाब नदी पर 6200 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से तैयार की जाएगी और इन से रोजगार के लगभग 5000 प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष अवसर सृजित होंगे। 40 वर्षों की अवधि पूर्ण होने के उपरान्त तेलंगाना सरकार इन दोनों परियोजनाओं को हिमाचल प्रदेश को वापिस सौंप देगी। जिला किन्नौर में 450 मेगावाट क्षमता की शोंग-टोंग जल विद्युत परियोजनाओं को नवम्बर-2026 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। इस योजना से सालाना लगभग एक हजार करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होगा।

सरकार की इस योजना से 426 एम.वी.ए. तक परिवर्तन क्षमता में वृद्धि होगी। प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2025-26 के दौरान 78 सर्किट किलोमीटर ईएचवी ट्रांसमिशन लाइन का कार्य भी समाप्त करेगी। प्रदेश के उपभोक्ताओं को निर्बाधित ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से चरणबद्ध तरीके से आवश्यक आधारभूत संरचना को विकसित किया जाएगा। इसकी शुरूआत करते हुए कांगड़ा जिला के गनोग (नूरपुर) करला कोटला (दहरा), मझीण (ज्वालामुखी), मोकी (इन्दौरा) समलोटी (नगरोटा बगवां) और थेर (ज्वालामुखी) में आगामी वित्त वर्ष में 33 के.वी. के 6 सब-स्टेशन बनाए जाएंगे। जलविद्युत परियोजनाओं के निष्पादन में अनावश्यक देरी से प्रदेश के राजस्व को काफी नुकसान होता है। इसलिए प्रदेश सरकार ने उन जल विद्युत डवेलपर्स की परियोजनाओं को रद्द करने के निर्देश दिए हैं, जो अपना कार्य गम्भीरता से नहीं कर रहे हैं।

संपादकीय का मूल्यांकन (परीक्षा की दृष्टि से)

यह संपादकीय हिमाचल प्रदेश की ऊर्जा नीति, विशेषकर जलविद्युत क्षेत्र में सरकार की वर्तमान रणनीति और भविष्य की योजनाओं पर केंद्रित है।

मुख्य बिंदु:

  1. समस्या की पहचान: संपादकीय स्पष्ट रूप से बताता है कि पूर्व में जलविद्युत परियोजनाओं को बिना किसी निश्चित समयावधि के आवंटित किया गया, जिससे राज्य को राजस्व का नुकसान हुआ।
  2. सरकार की नई पहल: यह राज्य के संसाधनों पर पुनः नियंत्रण स्थापित करने के लिए सरकार के प्रयासों को उजागर करता है, जिसमें कानूनी राय लेना भी शामिल है।
  3. अंतर-राज्यीय सहयोग: तेलंगाना सरकार के साथ सेली (400 MW) और म्याइ (120 MW) परियोजनाओं के लिए समझौता एक महत्वपूर्ण और अनूठी पहल है। यह परीक्षा के लिए एक उत्कृष्ट केस स्टडी है।
  4. बुनियादी ढांचे का विकास: यह केवल ऊर्जा उत्पादन पर ही नहीं, बल्कि ट्रांसमिशन लाइनों और सब-स्टेशनों (कांगड़ा, मंडी, ऊना) के निर्माण पर भी सरकार के फोकस को दर्शाता है, जो एक समग्र दृष्टिकोण है।
  5. समयबद्धता और जवाबदेही: शोंग-टोंग परियोजना के लिए एक निश्चित समय-सीमा (नवम्बर 2026) और गैर-गंभीर डेवलपर्स की परियोजनाओं को रद्द करने का निर्णय, सरकार की दक्षता और राजस्व के प्रति गंभीरता को दर्शाता है।

परीक्षा के लिए प्रासंगिकता:

  • HPAS (मुख्य परीक्षा): सामान्य अध्ययन के पेपर में हिमाचल की अर्थव्यवस्था, संसाधन प्रबंधन और ऊर्जा नीति से संबंधित प्रश्नों के लिए यह संपादकीय अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें दिए गए तथ्य और आंकड़े (जैसे 11,500 मेगावाट, परियोजनाओं के नाम, क्षमता, लागत) उत्तर को प्रभावी बनाते हैं।
  • प्रारंभिक परीक्षा: सेली, म्याइ और शोंग-टोंग परियोजनाओं के नाम, उनकी क्षमता (मेगावाट में), स्थान (लाहौल-स्पीति, किन्नौर) और सहयोगी राज्य (तेलंगाना) से सीधे प्रश्न बन सकते हैं।
  • निबंध: “हिमाचल प्रदेश का आर्थिक विकास,” “सतत विकास” या “ऊर्जा सुरक्षा” जैसे विषयों पर निबंध लिखने के लिए यहाँ से महत्वपूर्ण तर्क और उदाहरण लिए जा सकते हैं।
  • साक्षात्कार: साक्षात्कार में प्रदेश की आर्थिक स्थिति और ऊर्जा क्षेत्र में सरकार की पहलों पर प्रश्न पूछे जा सकते हैं। यह संपादकीय इन सवालों का ठोस जवाब देने के लिए सामग्री प्रदान करता है।

संपादकीय 2: मृदा गुणवत्ता

मूल संपादकीय 

यह पृथ्वी लाखों वर्षों की जैविक प्रक्रिया का सुफल है। इसकी छाती पर बिछी हुई मिट्टी न केवल हमारे जीवन का आधार है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक, आर्थिक और नैतिक चेतना की वाहिका भी रही है। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि यदि वर्तमान कृषि पद्धतियों और भूमि-प्रबंधन के तौर-तरीकों में परिवर्तन नहीं हुआ, तो आगामी 60 वर्षों में उपजाऊ मिट्टी की लगभग 90 प्रतिशत परतें समाप्त हो जाएंगी। यह केवल पर्यावरणीय चेतावनी नहीं है, बल्कि एक सामाजिक और मानवीय त्रासदी का संकेत है जो खाद्य संकट, भूख और विषाक्तता की अग्नि में झोंक सकती है।

भूमि की उर्वरता में गिरावट एक धीमा, मगर विनाशकारी संकट है। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (FAO) की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व की लगभग 33 प्रतिशत उपजाऊ भूमि पहले ही नष्ट हो चुकी है या गंभीर क्षरण की स्थिति में है। भारत में स्थिति और भी चिंताजनक है। ‘इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च’ (ICAR) के अनुसार, देश की कुल कृषि योग्य भूमि का लगभग 30 प्रतिशत भाग भूमि क्षरण से प्रभावित है। इस गिरावट का मुख्य कारण एकफसली खेती (Monoculture), अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग, जल-स्रोतों का दोहन, और गहन जुताई की प्रक्रियाएं हैं।

इसी परिप्रेक्ष्य में पुनर्योजी कृषि (Regenerative Farming) की अवधारणा एक नई आशा के रूप में उभरती है। यह पद्धति न केवल भूमि को उपजाऊ बनाती है, बल्कि कार्बन अवशोषण, जल संरक्षण और जैव विविधता को पुनः सजीव करती है। पुनर्योजी कृषि का एक अन्य प्रभाव यह है कि यह जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी सहायक हो सकती है। मिट्टी एक प्रमुख कार्बन सिंक है, और यदि प्रबंधन में जैविक तत्त्वों को पुनः जोड़ा जाए, तो यह वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर सकती है।

मगर इस परिवर्तन की राह में कई बाधाएं हैं। पहली बाधा है, नीतिगत समर्थन का अभाव। दूसरी बाधा है, किसानों में जानकारी और प्रशिक्षण का अभाव। तीसरी चुनौती है, बाजार व्यवस्था, जो अब भी मात्रा आधारित है, गुणवत्ता आधारित नहीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। सबसे पहले, कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों को पुनर्योजी कृषि पर गंभीर शोध और क्षेत्रीय मॉडल विकसित करने चाहिए। इसके साथ ही सरकार को ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो भूमि की उर्वरता को मापने और सुधारने को प्राथमिकता दें, न कि केवल उत्पादन को। यूरोपीय संघ जैसे देश अब ‘मिट्टी की स्वास्थ्य नीति’ की ओर बढ़ रहे हैं, जहां हर खेत की मिट्टी की गुणवत्ता का नियमित मूल्यांकन अनिवार्य है।

संपादकीय का मूल्यांकन (परीक्षा की दृष्टि से)

यह संपादकीय एक वैश्विक और राष्ट्रीय मुद्दे- मृदा क्षरण- को संबोधित करता है और ‘पुनर्योजी कृषि’ को एक समाधान के रूप में प्रस्तुत करता है।

मुख्य बिंदु:

  1. गंभीर चेतावनी: संपादकीय की शुरुआत ही प्रभावशाली आंकड़ों से होती है (60 वर्षों में 90% मिट्टी समाप्त , FAO की रिपोर्ट , ICAR का डेटा ), जो समस्या की गंभीरता को रेखांकित करता है।
  2. कारणों का विश्लेषण: यह हरित क्रांति के मॉडल की सीमाओं (एकफसली खेती, रसायन) को उजागर करता है और बताता है कि कैसे इसने मिट्टी के जैविक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाया है।
  3. समाधान का प्रस्ताव: ‘पुनर्योजी कृषि’ (Regenerative Agriculture) को एक स्थायी समाधान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह सिर्फ एक कृषि पद्धति नहीं है, बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने का एक उपकरण भी है (कार्बन सिंक के रूप में)।
  4. चुनौतियों की पहचान: यह लेख केवल समाधान बताकर नहीं रुकता, बल्कि उसे लागू करने में आने वाली बाधाओं (नीतिगत, जागरूकता और बाजार) का भी उल्लेख करता है, जो एक संतुलित दृष्टिकोण है।
  5. आगे की राह: संपादकीय में समाधान के लिए ठोस सुझाव दिए गए हैं, जैसे- अनुसंधान को बढ़ावा, नीतिगत बदलाव (‘मिट्टी की स्वास्थ्य नीति’ का उदाहरण), और मूल्यांकन के नए सूचकांक (‘सस्टेनेबल सोइल इंडेक्स’)।

परीक्षा के लिए प्रासंगिकता:

  • GS (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): यह संपादकीय मृदा क्षरण, सतत कृषि और जलवायु परिवर्तन के अंतर-संबंधों को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। FAO और ICAR के आंकड़े उत्तर में उद्धृत करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
  • GS (अर्थव्यवस्था/कृषि): यह भारतीय कृषि के संकट, हरित क्रांति के प्रभावों और कृषि में सुधारों की आवश्यकता पर चर्चा के लिए सामग्री प्रदान करता है।
  • निबंध: “जलवायु परिवर्तन और भारत,” “कृषि संकट: कारण और समाधान,” “मानव और पर्यावरण संघर्ष” जैसे विषयों के लिए यह एक उत्कृष्ट स्रोत है। ‘पुनर्योजी कृषि’ जैसे कीवर्ड निबंध को एक नई दिशा दे सकते हैं।
  • HPAS: इस संपादकीय को हिमाचल प्रदेश सरकार की ‘प्राकृतिक खेती प्रोत्साहन योजना’ से जोड़कर देखा जा सकता है। यह दिखाता है कि कैसे हिमाचल पहले से ही इस दिशा में कदम उठा रहा है, जिससे राज्य-विशिष्ट उत्तर लिखने में मदद मिलती है।

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